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|रचनाकार=जंगवीर स‍िंंह 'राकेश'
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<poem>
जब सहीह भी सहीह नहींं रहता
आदमी आदमी नहींं रहता

कोई तो बात है कि तन्हा हूँ
मैं यूँ ही तन्हा भी नहींं रहता

दिल की जो बात ग़ैर तक पहुँची
मसअला फिर वही नहींं रहता

गाँव के बाग कट गए, तभी तो
फूल पर भँवरा भी नहींं रहता

क्या संभालें ज़मानेभर का ग़म
आपे में आपा भी नहींं रहता

'प्यार' जब 'प्यास' बन गया हो 'वीर'
'प्यार' तब 'प्यार' भी नहींं रहता
</poem>
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