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|रचनाकार=विजयशंकर चतुर्वेदी |अनुवादक=|संग्रह=पृथ्वी के लिए तो रूको / विजयशंकर चतुर्वेदी}}{{KKCatKavita}}<poem>
बहुत दिनों से देवता हैं तैंतीस करोड़
उनके हिस्से का खाना-पीना नहीं घटता
वे नहीं उलझते किसी अक्षांश-देशांतर देशान्तर मेंवे बुद्घि बुद्धि के ढेरइंद्रियाँ इन्द्रियाँ झकाझक उनकी
सर्दी-खाँसी से परे
ट्रेन से कटकर नहीं मरते
रहते हैं पत्थर में बनकर प्राण
कभी नहीं उठती उनके पेट में मरोड़
देवता हैं तैंतीस करोड़।
हम ढूँढते ढूँढ़ते हैं उन्हें
सूर्य के घोड़ों में
क्रोध में
शोक में
धरती में
आकाश में
मस्जिद में
दंगे में
शुरू में
बाद में
पुजारी की खाल में
वे छिप जाते हैं
देवता कंधे कन्धे पर बैठकर चलते हैं साथ
परछाई में रहते हैं पैवस्त
सोते हैं खुले में
धूप में
बारिश में
गाँजे की चिलम में छिप जाते हैं हर वक्तवक़्त
नारियल हैं वे
अक्षत हैं
धूप-गुग्गुल हैं देवता
कुछ अंधेअन्धे
कुछ बहरे
कुछ लूले
बड़े अजायबघर हैं
युगों-युगों के ठग
नहीं सुनते हाहाकार
प्राणियों की करुण पुकार
हम तमाम उम्र अधीर
माँगते वर गंभीरगम्भीर
इतनी साधना
इतना योग
इतना ज्ञान
इतना दान
जाता है निष्फल।
वे छिपे रहते हैं मोतियाबिंद मोतियाबिन्द मेंफेफड़ों के कफ कफ़ में
मन के मैल में
बालों के तेल में
हमारी पीड़ाएँ नुकीले तीर
छूटती रहती हैं धरती से आकाश
और बच-बच निकल जाते हैं तैंतीस करोड़ देवता।
हमारा घोर एकांतएकान्त
घनी रात
भूख-प्यास
वह सब कुछ लौटता है
जो चला गया चौरासी करोड़ योनियों का
और तिलमिला उठते हैंतैंतीस करोड़ देवता।देवता ।</poem>