देवता हैं तैंतीस करोड़ / विजयशंकर चतुर्वेदी
बहुत दिनों से देवता हैं तैंतीस करोड़
उनके हिस्से का खाना-पीना नहीं घटता
वे नहीं उलझते किसी अक्षांश-देशान्तर में
वे बुद्धि के ढेर
इन्द्रियाँ झकाझक उनकी
सर्दी-खाँसी से परे
ट्रेन से कटकर नहीं मरते
रहते हैं पत्थर में बनकर प्राण
कभी नहीं उठती उनके पेट में मरोड़
देवता हैं तैंतीस करोड़ ।
हम ढूँढ़ते हैं उन्हें
सूर्य के घोड़ों में
गन्धाते दुखों में
क्रोध में
शोक में
जीवन में
मृत्यु में
मक्खी में
खटमल में
देश में
प्रदेश में
धरती में
आकाश में
मन्दिर में
मस्जिद में
दंगे में
फ़साद में
शुरू में
बाद में
घास में
काई में
ब्राह्मण में
नाई में
बहेलिए के जाल में
पुजारी की खाल में
वे छिप जाते हैं
सल्फ़ास की गोली में !
देवता कन्धे पर बैठकर चलते हैं साथ
परछाई में रहते हैं पैवस्त
सोते हैं खुले में
धूप में
बारिश में
गाँजे की चिलम में छिप जाते हैं हर वक़्त
नारियल हैं वे
चन्दन हैं
अक्षत हैं
धूप-गुग्गुल हैं देवता
कुछ अन्धे
कुछ बहरे
कुछ लूले
कुछ लंगड़े
कुछ ऐंचे
कुछ तगड़े
बड़े अजायबघर हैं
युगों-युगों के ठग
जन्मान्तरों के निष्ठुर
नहीं सुनते हाहाकार
प्राणियों की करुण पुकार
हम तमाम उम्र अधीर
माँगते वर गम्भीर
इतनी साधना
इतना योग
इतना त्याग
इतना जप
इतना तप
इतना ज्ञान
इतना दान
जाता है निष्फल ।
वे छिपे रहते हैं मोतियाबिन्द में
फेफड़ों के कफ़ में
मन के मैल में
बालों के तेल में
हमारी पीड़ाएँ नुकीले तीर
छूटती रहती हैं धरती से आकाश
और बच-बच निकल जाते हैं तैंतीस करोड़ देवता ।
हमारा घोर एकान्त
घनी रात
भूख-प्यास
घर न द्वार
राह में बैठे खूँखार
तड़कता है दिल-दिमाग
लौटती हैं पितरों की स्मृतियाँ
राह लौटती है
लौटते हैं युग
वह सब कुछ लौटता है
जो चला गया चौरासी करोड़ योनियों का
और तिलमिला उठते हैं तैंतीस करोड़ देवता ।