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{{KKRachna
|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
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|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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<poem>
हो हल्ला और धूल के, गुबार के बीच,
क्रोध से दीपदीपाते, विकृत चेहरों के बीच,
घृणित हंसी और फूहड़ मजाकों के बीच,
तकलीफदेह नारों व तामसी अट्टाहास के बीच,
लेनिन की वो मूर्ति, जमींदोज हो रही थी ।

पर जमीन पर गिरने से पहले, उसकी मुस्कुराहट,
निविड़ अंधकार में, एक छोटे दीये सी चमकी,
जिसकी रौशनी की किरचें,
नकली नारों की बैशाखी लिए खड़े,
लोगों की आंखों में गड़ गयी ।
</poem>
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