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<poem>
छेड़ दी बात किस जमाने की
बात होती कहाँ निभाने की

साफ़ कहता है उसका इतराना
हाथ चाभी लगी खजाने की

सबने अपने गुरूर पाले हैं
बात होगी न अब ठिकाने की

क्यों दिखाता है आईना उसको
उसकी आदत है रूठ जाने की

उसने पहरे बिठा दिए, जिस पर
राह अपनी है आने-जाने की

खाए जिससे हजार धोखे ही
सोचता हूँ कि आजमाने की

जो भी कहना है साफ़ कह देंगे
क्या जरूरत किसी बहाने की
</poem>
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