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छेड़ दी बात किस जमाने की / मनीष कुमार झा
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छेड़ दी बात किस जमाने की
बात होती कहाँ निभाने की
साफ़ कहता है उसका इतराना
हाथ चाभी लगी खजाने की
सबने अपने गुरूर पाले हैं
बात होगी न अब ठिकाने की
क्यों दिखाता है आईना उसको
उसकी आदत है रूठ जाने की
उसने पहरे बिठा दिए, जिस पर
राह अपनी है आने-जाने की
खाए जिससे हजार धोखे ही
सोचता हूँ कि आजमाने की
जो भी कहना है साफ़ कह देंगे
क्या जरूरत किसी बहाने की