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Kavita Kosh से
गर तुम्हें साथ मेरा गवारा नहीं
मासेवा एक के कोई चारा नहीं
बिन तुम्हारे मिरा अब गुज़ारा नहीं
ये समझ लो कोई और चारा नहीं
जाने वाला कभी लौट आएगा ख़ुद
इसलिए मैंने उसको पुकारा नहीं
क्यों ख़फ़ा हो गए क्या ख़ता है मेरीमिरी
हक़ तुम्हारा कभी हमने मारा नहीं
हसरते -दीद, दिल की, रही दिल में ही
तू ने ज़ुल्फ़ों को अपनी संवारा नहीं
बू-ए-गुल की तरह है मिरी ज़िन्दगी मेरी ख़ुशबू भी है फूल भी मेरी आहों में लेकिन हरगिज़ शरारा नहीं
उसको ख़ुशियों की मंज़िल मुक़द्दर ने दी
आज है कौन दुनिया में ऐसा 'रक़ीब'
गर्दिशे वक़्त ने जिसको मारा नहीं
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