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01:34, 14 जून 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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<poem>जिसे जाना जिसे समझा क़रीबी
नहीं था शख़्स वो अपना क़रीबी
निशाना भीड़ में हम ही बने हैं
कोई तो है यहाँ अपना क़रीबी
बचाना ख़ुद को फिर शर्मिदगी से
कोई गर जांच में निकला क़रीबी
हमारे साथ रहता है हमेशा
ताअल्लुक़ ग़म से है इतना क़रीबी
मैं शब भर चांद से करता हूँ बातें
वही इक दोस्त है मेरा क़रीबी
मुसलसल हिचकियां क्यों आ रही हैं
मुसिबत में है कोई क्या क़रीबी
</poem>