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<poem>
ऐसे जीना है कभी सोचा न था
जी रहा था और मैं ज़िंदा न था

मैं अजब चेहरों के जंगल में घिरा
सब करीबी थे कोई अपना न था

उस शहर में ऊंँचे-ऊंँचे थे मकान
ज़िन्दगी का एक भी कमरा न था

इसको कहते हैं मुक़द्दर का बहाव
मैं जहाँ डूबा वहाँ दरिया न था

बस किसी उम्मीद का था आसरा
इसलिए मैं टूटकर बिखरा न था

जो उदासी में सुनाया है तुम्हें
कल खुशी में क्या वही किस्सा न था

याद आने के बहाने थे कई
भूलने का एक भी रस्ता न था
</poem>
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