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17:41, 6 जुलाई 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विनय मिश्र
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|संग्रह=
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<poem>
ऐसे जीना है कभी सोचा न था
जी रहा था और मैं ज़िंदा न था
मैं अजब चेहरों के जंगल में घिरा
सब करीबी थे कोई अपना न था
उस शहर में ऊंँचे-ऊंँचे थे मकान
ज़िन्दगी का एक भी कमरा न था
इसको कहते हैं मुक़द्दर का बहाव
मैं जहाँ डूबा वहाँ दरिया न था
बस किसी उम्मीद का था आसरा
इसलिए मैं टूटकर बिखरा न था
जो उदासी में सुनाया है तुम्हें
कल खुशी में क्या वही किस्सा न था
याद आने के बहाने थे कई
भूलने का एक भी रस्ता न था
</poem>
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