भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसे जीना है कभी सोचा न था / विनय मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 ऐसे जीना है कभी सोचा न था
 जी रहा था और मैं ज़िंदा न था

मैं अजब चेहरों के जंगल में घिरा
सब करीबी थे कोई अपना न था

 उस शहर में ऊंँचे-ऊंँचे थे मकान
ज़िन्दगी का एक भी कमरा न था

इसको कहते हैं मुक़द्दर का बहाव
मैं जहाँ डूबा वहाँ दरिया न था

बस किसी उम्मीद का था आसरा
इसलिए मैं टूटकर बिखरा न था

जो उदासी में सुनाया है तुम्हें
कल खुशी में क्या वही किस्सा न था

याद आने के बहाने थे कई
भूलने का एक भी रस्ता न था