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|रचनाकार=गोपाल कृष्ण शर्मा 'मृदुल'
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<poem>
अच्छे दिन की खूब कही है।
उलट-पुलट कर बात वही है।।

राजा के नंगेपन का क्या,
‘परजा’ के मुँह जमा दही है।।

निर्बल और सबल का रिश्ता,
इनका सिर, उनकी पनही है।।

‘भाग-करम’ सब अपने-अपने,
शासन का कुछ दोष नहीं है।।

बटमारों की पाँचों घी में,
आज़ादी का सुफल यही है।।

जुमलेबाजी के जंगल में,
सच्चाई तो भटक रही है।।

भूखे-नंगे राजा चुनते,
क्या इससे संतोष नहीं है?
</poem>
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