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07:07, 8 जुलाई 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=गोपाल कृष्ण शर्मा 'मृदुल'
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
अच्छे दिन की खूब कही है।
उलट-पुलट कर बात वही है।।
राजा के नंगेपन का क्या,
‘परजा’ के मुँह जमा दही है।।
निर्बल और सबल का रिश्ता,
इनका सिर, उनकी पनही है।।
‘भाग-करम’ सब अपने-अपने,
शासन का कुछ दोष नहीं है।।
बटमारों की पाँचों घी में,
आज़ादी का सुफल यही है।।
जुमलेबाजी के जंगल में,
सच्चाई तो भटक रही है।।
भूखे-नंगे राजा चुनते,
क्या इससे संतोष नहीं है?
</poem>