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{{KKRachna
|रचनाकार= कुमार मुकुल
|संग्रह=
}}
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<poem>
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
गोडसेउआ के बाबा बोलीं
मजलूमन प धावा बोलीं
जाती-धरम के रट्टा मारीं
गाँधी के बिसराईं
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
नेह-परेम के फंदा दे दीं
पर्टिअन के कुछो चंदा दे दीं
देशभगति के बीन बाजत बा
चली के कमर हिलाईं
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
आजू-बाजू गुर्गा पालीं
दिखे सुफेदी कीच उछालीं
बांट-बखेरा हर दर पालीं
ज्ञानी बन उलझाईं
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
</poem>
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|रचनाकार= कुमार मुकुल
|संग्रह=
}}
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चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
गोडसेउआ के बाबा बोलीं
मजलूमन प धावा बोलीं
जाती-धरम के रट्टा मारीं
गाँधी के बिसराईं
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
नेह-परेम के फंदा दे दीं
पर्टिअन के कुछो चंदा दे दीं
देशभगति के बीन बाजत बा
चली के कमर हिलाईं
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
आजू-बाजू गुर्गा पालीं
दिखे सुफेदी कीच उछालीं
बांट-बखेरा हर दर पालीं
ज्ञानी बन उलझाईं
चलीं सभे, अनपढ़ हो जाईं
</poem>