1,470 bytes added,
09:43, 11 अक्टूबर 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गौरव गिरिजा शुक्ला
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
आग बुझ गई है मगर कुछ धुआँ-धुआँ सा है,
होकर जुदा मुझसे तू कुछ जुड़ा-जुड़ा सा है।
मुस्कराहट ओढ़ कर ग़म छुपाने की लाख कोशिश करो,
आँखें बता रही हैं तू कुछ बुझा-बुझा सा है।
अपने लबों से तुमने कोई शिकायत न की मगर,
तेरे अंदाज़ ने कह दिया तू कुछ ख़फ़ा-ख़फ़ा सा है।
तू चला गया मगर तेरा ख़याल है कि जाता नहीं,
नफ़रत है या मोहब्बत कुछ बचा-कुचा सा है।
इस क़दर रोये हैं कि अब आंसू ही सूख गए,
पलकों में अब मौसम कुछ सूखा-सूखा सा है।
चाहता तो हूँ कि कोई मुस्कुराता तराना लिख दूँ,
मगर मेरा वजूद ही अश्क में कुछ डूबा डूबा सा है।
</poem>