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अब सूना पहर / कविता भट्ट

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छाया पतझड़ कुछ इस कदर था,
गुमाँ था; मगर मैं माली न बन सकी।
ख्वाबों से दूर सितारों का शहर था,
रोयी बहुत मगर रुदाली न बन सकी।

जीवन अमावस का ही मंजर था,
यह सूनी रात दिवाली न बन सकी।
समय के हाथ फूल, बगल में खंजर था,
जो पेट भर दे मैं वह थाली न बन सकी।

बहुत रोका मगर मौत ही उसका सफर था,
ज़हर थी, मैं अमृत की प्याली न बन सकी।
शिकायतें खत्म हुई सब- अब सूना पहर था,
'''प्रेम शेष; मैं यौवन की लाली न बन सकी।'''

</poem>