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02:02, 21 अक्टूबर 2019 {{KKRachna
|रचनाकार=कविता भट्ट
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|संग्रह=
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<poem>
छाया पतझड़ कुछ इस कदर था,
गुमाँ था; मगर मैं माली न बन सकी।
ख्वाबों से दूर सितारों का शहर था,
रोयी बहुत मगर रुदाली न बन सकी।
जीवन अमावस का ही मंजर था,
यह सूनी रात दिवाली न बन सकी।
समय के हाथ फूल, बगल में खंजर था,
जो पेट भर दे मैं वह थाली न बन सकी।
बहुत रोका मगर मौत ही उसका सफर था,
ज़हर थी, मैं अमृत की प्याली न बन सकी।
शिकायतें खत्म हुई सब- अब सूना पहर था,
'''प्रेम शेष; मैं यौवन की लाली न बन सकी।'''
</poem>