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इबादत मुसलसल मैं करता रहूँगा।
तिरे तेवरों से भी डरता रहूँगा।
वज़ाहत की कोई ज़रूरत कहाँ है,
तुम्हें देखकर मैं सँवरता रहूँगा।
 
वकालत तो मेरी करेगा न कोई,
मगर आग ख़ुद में मैं भरता रहूँगा।
सज़ा काटकर मैं गुनाहों की अपने,
नज़र में ख़ुद अपनी निखरता रहूँगा।
 
फ़ज़ीहत न होगी कभी ‘नूर’ मेरी,
जो रुस्वाइयों से मैं डरता रहूँगा।
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