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{{KKRachna
|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर
|संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर
}}
<poem>
चाँदनी छिटकी हुई बेछोर,
नाचता है उल्लसित मन-मोर,
:नींद आँखों से उलझकर हो गयी है दूर !
प्राण ने सुखमय नया संसार,
आज पलकों में किया साकार,
:मूक नयनों का तभी यह बढ़ गया है नूर !
है बड़ी मोहक रुपहली रात,
दूर पूरब से बहा है वात,
:व्योम में छाया हुआ निशि का नशा भरपूर !
प्राणमय कितना निशा का गान,
सुन जिसे रहता नहीं है ध्यान,
:है छिपा कोई कहीं पर सृष्टि-भेद ज़रूर !
1949
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|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर
|संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर
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चाँदनी छिटकी हुई बेछोर,
नाचता है उल्लसित मन-मोर,
:नींद आँखों से उलझकर हो गयी है दूर !
प्राण ने सुखमय नया संसार,
आज पलकों में किया साकार,
:मूक नयनों का तभी यह बढ़ गया है नूर !
है बड़ी मोहक रुपहली रात,
दूर पूरब से बहा है वात,
:व्योम में छाया हुआ निशि का नशा भरपूर !
प्राणमय कितना निशा का गान,
सुन जिसे रहता नहीं है ध्यान,
:है छिपा कोई कहीं पर सृष्टि-भेद ज़रूर !
1949
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