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रात / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
चाँदनी छिटकी हुई बेछोर,
नाचता है उल्लसित मन-मोर,
नींद आँखों से उलझकर हो गयी है दूर !
प्राण ने सुखमय नया संसार,
आज पलकों में किया साकार,
मूक नयनों का तभी यह बढ़ गया है नूर !
है बड़ी मोहक रुपहली रात,
दूर पूरब से बहा है वात,
व्योम में छाया हुआ निशि का नशा भरपूर !
प्राणमय कितना निशा का गान,
सुन जिसे रहता नहीं है ध्यान,
है छिपा कोई कहीं पर सृष्टि-भेद ज़रूर !
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