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'''(अमीर खां ख़ाँ और पन्नालाल घोष को सुनने की स्मृति)'''
बहुत दूर किसी जीवन से निकल कर आती है
राग मारवा की आवाज़
उसे अमीर खां ख़ाँ गाते हैं अपने अकेलेपन में
या पन्नालाल घोष बजाते हैं
किसी चरवाहे की-सी अपनी लम्बी पुरानी बांसुरी पर
फ़िर भी भूले-भटके सुनाई दे जाता है
रेडियो या किसी घिसे हुए रेकॉर्ड से फूटता शाम के रंग का मारवा
अमीर खां ख़ाँ की आवाज़ में फैलता हुआ
या पन्नालाल घोष की बांसुरी पर उड़ता हुआ
आकार पाने के लिए तड़पता हुआ एक अमूर्तन
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