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|रचनाकार=रमेश तन्हा
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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>

बात कुछ नहीं समझाता मुझे आइना हर रोज़
बात उसकी मगर मैंने भी मानी तो नहीं है

हर ज़ाविये से चेहरा दिखा कर नया हर रोज़
बात कुछ नहीं समझाता मुझे आइना हर रोज़
कहता है ज़बूं हाल सुना कर मिरा हर रोज़

तू अपना कोई दुश्मने-जानी तो नहीं है

बात कुछ नहीं समझाता मुझे आइना हर रोज़
बात उसकी मगर मैंने भी मानी तो नहीं है।
</poem>
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