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{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
}}
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<poem>
भूली हुई शिनाख्त की परछाइयों में गुम
तन्हा खड़ा है कोई मुझे घूरता हुआ
अपने ही ज़हनो-ज़ात कि पस्पाइयों में गुम
भूली हुई शनाख्त की परछाइयों में गुम
ख्वाबो-ख़याल अंजुमन आराइयों में गुम
कांधे को अपनी याद में झंझोड़ता हुआ
भूली हुई शिनाख्त की परछाइयों में गुम
तन्हा खड़ा है कोई मुझे घूरता हुआ
</poem>
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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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भूली हुई शिनाख्त की परछाइयों में गुम
तन्हा खड़ा है कोई मुझे घूरता हुआ
अपने ही ज़हनो-ज़ात कि पस्पाइयों में गुम
भूली हुई शनाख्त की परछाइयों में गुम
ख्वाबो-ख़याल अंजुमन आराइयों में गुम
कांधे को अपनी याद में झंझोड़ता हुआ
भूली हुई शिनाख्त की परछाइयों में गुम
तन्हा खड़ा है कोई मुझे घूरता हुआ
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