भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भूली हुई शिनाख़्त की परछाइयों में गुम / रमेश तन्हा
Kavita Kosh से
भूली हुई शिनाख्त की परछाइयों में गुम
तन्हा खड़ा है कोई मुझे घूरता हुआ
अपने ही ज़हनो-ज़ात कि पस्पाइयों में गुम
भूली हुई शनाख्त की परछाइयों में गुम
ख्वाबो-ख़याल अंजुमन आराइयों में गुम
कांधे को अपनी याद में झंझोड़ता हुआ
भूली हुई शिनाख्त की परछाइयों में गुम
तन्हा खड़ा है कोई मुझे घूरता हुआ