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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
गूंगे बहरों की तरह रहते हैं हम
घर में रह कर भी हैं यकसर अजनबी

अपनी इक दूजे से कब कहते हैं हम
गूंगे बहरों की तरह रहते हैं हम
इक तअल्लुक है जिसे सहते हैं हम

कैसी दिलदारी, कहां की दोस्ती

गूंगे बहरों की तरह रहते हैं हम
घर में रह कर भी हैं यकसर अजनबी।
</poem>
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