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06:59, 7 सितम्बर 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अंबर खरबंदा
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|संग्रह=
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<poem>
वक़्त कहता है सँभल जाओ कहीं ऐसा न हो
वो भी हो जाए कभी जो आपने सोचा न हो
दिल की हर दीवार पर चिपकी हैं यूं ख़ामोशियाँ
एक मुद्दत से यहाँ जैसे कोई रहता न हो
आज भी दुनिया बड़ी ही ख़ूबसूरत है, मगर
शर्त इतनी है तुम्हारी आँख में जाला न हो
थी ग़मों की भीड़ लेकिन इक ख़ुशी भी थी वहीं
हाँ, ये मुम्किन है के तुमने ग़ौर से देखा न हो
अब भी उठते हैं मेरे बारे में रह-रह कर सवाल
जैसे मुझको दोस्तो! तुमने कभी परखा न हो
दोस्तो! हालात का तुम से तक़ाज़ा है यही
अब ग़ज़ल में ज़ुल्फ़ का, रुख़्सार का चर्चा न हो
मैं इन्हीं बातों में ‘अंबर’ उम्र भर उलझा रहा
ये न हो. वो भी न हो, ऐसा न हो, वैसा न हो
</poem>