भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
ये मोड़ वो हैं कि परछाइयाँ देगी न साथ.
मुसाफ़िरों से कहो, उसकी रहगुज़र आई.
फ़ज़ा तबस्सुमे-सुबह-बहार थी लेकिन.
शबे-'फिराक़'उठे दिल में और भी कुछ दर्द.
कहूँ मैं कैसे,तेरी याद रात भर आई.
</poem>