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<poem>
यह कैसे चाँदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में!
कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुलीगोधूली-लगन में?
मरघट में तू साज रही दिल्ली! कैसे श्रृंगार?
यह बहार का स्वांग अरिअरी, इस उजड़े हुए चमन में!
इस उजाड़, निर्जन खंडहर में,
डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं गाव घाव इधर सतलज के शीतल जल से,उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिडकानाछिड़काना?
महल कहाँ? बस, हमें सहारा
केवल फूस-फांसफाँस, तृणदल का;
अन्न नहीं, अवलंब प्राण को
गम, आंसू आँसू या गंगाजल का;
यह विहगों का झुण्ड लक्ष्य है
यह अलका छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में?
बिखरी लट, आंसू आँसू छलके हैं,
देख, वन्दिनी है बिलखाती,
अश्रु पोंछने हम जाते हैं,
में हैं कड़ियाँ कस जातीं!
और कहें क्या? धरा न धंसतीधँसती,
हुन्करता न गगन संघाती!
हाय! वन्दिनी मां माँ के सम्मुख
सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती!
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