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|रचनाकार= कविता भट्ट
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1-नैनों की भाषा

नैनों की भाषा लिपि में बदल न सकी,
वह पीड़ा शब्दों में कभी ढल न सकी।

पहाड़ी नदी जाती तो है दूर बहकर,
सागर में, बदली उड़ती वाष्प बनकर।

फिर पहाड़ पर पानी बन बरसना ,
और बर्फ बन चोटियों पर जमना ।

पत्थरों से घर्षण और पीड़ा बहने की,
वाष्पीकरण की प्रतीक्षा- दूर रहने की।

समझे भाषा नदी की, न पर्वत न सागर
स्वयं ही समझे नदी अपने भीगे आखर।
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