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Kavita Kosh से
दो बूढे़ शरीरों को ढाँढ़स देती
बरखा-हवाओं से संघर्ष करती,
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
नौनिहाल हँसी बीते दिनों की बातें,
खंडहर दीवारों पर दो बूढ़ी परछाइयाँ,
चिम्नी-शिथिल प्रकाश सुस्त अँगड़ाइयाँ।
कमजोर बुझती -सी लौ अब भी जलती है।दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझढलती साँझ ढलती है।
बूढ़ी साँसों की इतिश्री कर डाली,
बसाने के लिए भावी युवा पीढ़ी।
मेरे पहाड़ी गांवों गाँवों की वह जवानी,महानगरों की चादरों में रेशमी।रेशमी पैबन्द की तरह सिमट हाथ मलती है।
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
जागती है जवानी बसों में लदने के लिए,
जैसे जानते ही नहीं, और नहीं पाते बता,
खो -सी जाती है हँसी, रोटी का भार उठा,
स्नेह-स्पर्श को तरसती, भावना उबलती हैं,
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
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