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<poem>
मेरे अधर की बाँसुरी
तेरे अधर के सुर मिलें,
गुंजित हो धरा - गगन ये
मन -प्राण सुरभित हो खिलें।
जब सफ़र हो आखिरी तो
तुम्हीं मेरे पास रहना ।
कह सके ना जो उम्रभर
सब वह तुमसे है कहना।
 
मरुभूमि की प्यास मेरी
और तुम हो निर्मल नदी
अँजुरी भर न पी सके हम
कितनी बड़ी यह त्रासदी!
 
कण्ठ लग जाओ कभी जो
यह शीत मन का दूर हो।
मुझे वह हाला पिलादो
ये मन मगन, तन चूर हो।
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