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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रदीप त्रिपाठी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
सदियों से देख रहा हूँ मैं
इन्हीं खुरदुरे पैरों को
हाँफता
झुझलाता
कांपता
बौखलाता हुआ
कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ
इन फटेहाल पैरों का
जिनकी दरारें धीरे-धीरे
अब और बढ़ती जा रही हैं
दिन-प्रतिदिन...
</poem>
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|रचनाकार=प्रदीप त्रिपाठी
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
सदियों से देख रहा हूँ मैं
इन्हीं खुरदुरे पैरों को
हाँफता
झुझलाता
कांपता
बौखलाता हुआ
कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ
इन फटेहाल पैरों का
जिनकी दरारें धीरे-धीरे
अब और बढ़ती जा रही हैं
दिन-प्रतिदिन...
</poem>