भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खुरदुरे पैर की जमीन / प्रदीप त्रिपाठी
Kavita Kosh से
सदियों से देख रहा हूँ मैं
इन्हीं खुरदुरे पैरों को
हाँफता
झुझलाता
कांपता
बौखलाता हुआ
कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ
इन फटेहाल पैरों का
जिनकी दरारें धीरे-धीरे
अब और बढ़ती जा रही हैं
दिन-प्रतिदिन...