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Kavita Kosh से
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हम नदी की
रेत हैं
यूँ मत उछालो,
बह न जाएँ
धार में
हमको सँभालो ।
पत्थरों से
चूर होकर हम बने
घाटियाँ भी
अनगिनत हैं
पार की,
गर्त में गोते लगा
और डूबे,
राह पकड़ी है
कभी मझधार की।
हाथ पकड़ो प्यार से
हमको निकालो।
कुछ न होगा
पास तब हम रहेंगे
बीती हुई
याद आएगी कथा
साथ देती
दूर तक
मुस्कान कब
साथ देती
है अकेली ही व्यथा
हो सके तो
हमको हृदय से लगा लो।
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