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02:20, 14 नवम्बर 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
|अनुवादक=
|संग्रह=दूधिया धूप
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<poem>
अँधियारी अलकों का सावन
मन भरमाता है।
कुलाँचें भरता विरही मेघा-
भी शरमाता है।
इनकी सौंधी वास न जाने
क्या-क्या टोना कर देती हैं।
हाथ बढ़ाकर छू न पाऊँ,
इतना बौना कर देती हैं।
घुँघराली चन्दन-छाया में
तन खो जाता है।
मुख़े के इस खिले चाँद को
चुपके चूम-चूम लेतीं
अधरों पर इतरा-इतराकर
खुशबू के उपवन बो देतीं।
बँधा लाज से अल्हड़ यौवन
फगुन गाता है।
'''(15-7-1978: अरुण-मुरादाबाद 1982)'''
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