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{{KKRachna
|रचनाकार=मोहम्मद मूसा खान अशान्त
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
उनके घर के करीबतर होता
तो मिरा घर भी कोई घर होता
उन हवाओं से साँस भर लेता
उनका आँचल जिधर जिधर होता
गुन गुनाता नई-नई गज़लें
वो मिरी ज़ीस्त मे अगर होता
सज़ सँवर के निकलते वो बाहर
ईद का ज़श्न अपने घर होता
आरज़ू दिल में है यही मूसा
आपका दर और अपना सर होता
</poem>
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उनके घर के करीबतर होता
तो मिरा घर भी कोई घर होता
उन हवाओं से साँस भर लेता
उनका आँचल जिधर जिधर होता
गुन गुनाता नई-नई गज़लें
वो मिरी ज़ीस्त मे अगर होता
सज़ सँवर के निकलते वो बाहर
ईद का ज़श्न अपने घर होता
आरज़ू दिल में है यही मूसा
आपका दर और अपना सर होता
</poem>