भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
गहरी बदरी छा रही है
गड़गड़ा रहे हैं काले बादल ।
झींगुरों की वह पुरानी लोरी
झींगुरों की वह पुरानी लोरी
घास के मैदानों में खोती जा रही है ।
शाहबलूत की पत्तियों का लरज़ना भी
बन्द हो चुका है ।
 
घुमावदार सीढ़ियों पर
सरसरा रहे हैं तुम्हारे कपड़े ।
 
घुप्प अन्धेरे कमरे में
गुमसुम और ख़ामोश जल रही है मोमबत्ती ।
 
एक रुपहला हाथ
मोमबती को बुझा देता है,
तारों रहित औ’ हवा रहित है आज की रात ।
नवम्बर 1910
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,434
edits