भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatGhazal}}
<poem>
आँखें बंद पड़ीं गीजर गीज़र की फिर भी दहता है पानी।उनके तन की तपिश न पूछो कैसे सहता है पानी।
नाज़ुक होठों को छूने तक भूखा रहता बेचारा,
जब तक नहीं नहा लेतीं लेते वो प्यासा रहता है पानी।
उनके बालों से बिछुए तक जाने में चुप रहता फिर, कल की आशा में सारा दिन कल -कल कहता है पानी।
एक रेशमी छुवन के पीछे हुआ है ऐसा दीवाना, सूरज रोज रोज़ बुलाए फिर भी नीचे बहता है पानी।
बाधाएँ जितनी ज्यादा ज़्यादा हों उतना ऊपर चढ़ जाता,हार न माने इश्क इश्क़ अगर सच्चा हो कहता है पानी।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits