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मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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04:37, 26 फ़रवरी 2024
तीखी ढलान पर न फिसलती हैं चींटियाँ।
आँचल न माँ का सर पे न साया है बाप का,
जीवन की तेज़ धूप में पलती हैं चींटियाँ।
शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई,
अकसर
अक्सर
मेरे बदन पे टहलती हैं चींटियाँ।
</poem>
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