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स्वप्न के
या सत्य के भय-भार से
भाग कर जाता कहाँ संसार से ! रोज़ तुझको सूँघकर कुत्ते निकल जाते क्यों गली में व्यर्थ बदबू दे रहा पगले । मूक भाषा आँख की महती धरोहर है किस जनम के तू स्वयं से ले रहा बदले ।
भोग सीधे वक़्त के तेवर
मत चुनौती के मुकर स्वीकार से ! नोंचकर इस ज़िस्म को क्यों हो रहा नंगा खीझ, लेकिन, सीख अपने आप में रहना । ज़िन्दगी से जोड़कर खोटी तमन्नाएँ भावना में और अब ज़्यादा नहीं बहना ।
ओखली में दे दिया जब सिर
क्या बमकना धनकुटे की मार से ! हैं सृजन के पहरुए इस वक़्त चुप साधे है उन्हें चिन्ता नहीं तेरे गिरे घर की । अस्मिता के ध्वंस पर फिर से खड़े होकर ठीक-से पहचान ध्वनि अपने कटे स्वर की ।
ढो रहा तू जो बड़ा पत्थर
मानते, बेडौल है आकार से !
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