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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|संग्रह=
}}

<Poem>
:पीपल का पात हिला
उससे ही पता चला
:अभी सृष्टि ज़िन्दा है

शाहों ने मरण रचा
बस्तियाँ मसान हुईं
सुभ-शाम-दुपहर औ' रातें
बेजान हुईं

:कहीं कोई फूल खिला
उससे ही पता चला
:अभी सृष्टि ज़िन्दा है

शहज़ादों का खेला
गाँव-गली रख हुए
सारे ही आसमान
अंधियारा पाख हुए

:एक दीया जला मिला
उससे ही प्ता चला
:अभी सृष्टि ज़िन्दा है

नाव नदी में डूबी
रेती पर नाग दिखे
संतों की बानी का
कौन भला हाल लिखे

:रंभा रही कपिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है।

</poem>