भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पीपल का पात हिला / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
पीपल का पात हिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है
शाहों ने मरण रचा
बस्तियाँ मसान हुईं
सुभ-शाम-दुपहर औ' रातें
बेजान हुईं
कहीं कोई फूल खिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है
शहज़ादों का खेला
गाँव-गली रख हुए
सारे ही आसमान
अंधियारा पाख हुए
एक दीया जला मिला
उससे ही प्ता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है
नाव नदी में डूबी
रेती पर नाग दिखे
संतों की बानी का
कौन भला हाल लिखे
रंभा रही कपिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है।