भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
चाहता तुमको बसाना
और कुछ भाया कहाँ
 
गूँजती झनकार के सपने सजाकर
पायलों का स्वप्न बुनता ही रहा मैं
एक ठंडी मद्धिम आग फिर सेजलती जल उठी मेरे जेह्न जा रही थी श्वास मेंसच कहूँ आनंद ही आनंदमन-नदी की आस्था था ऐसे दहन जागी थी फिर से प्यास में  
देह का कंचन तपाया जा रहा था
और कुंदन में बदलता ही रहा मैं
मिट गया सारा परायापन
हुईं खुशियाँ सगीं
 
चाहतों के शीर्षकों का लेख बनकर
शिलालेखों सा उभरता ही रहा मैं
</poem>
Mover, Protect, Reupload, Uploader
6,612
edits