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आहटें ऐसी मिलीं मेरे हृदय को / राहुल शिवाय

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आहटें ऐसी मिलीं मेरे हृदय को
कल समूची रात जगता ही रहा मैं

मन बहुत वीरान था
कोई पहुँच पाया कहाँ
चाहता तुमको बसाना
और कुछ भाया कहाँ

गूँजती झनकार के सपने सजाकर
पायलों का स्वप्न बुनता ही रहा मैं

एक मद्धिम आग जलती
जा रही थी श्वास में
मन-नदी की आस्था
जागी थी फिर से प्यास में

देह का कंचन तपाया जा रहा था
और कुंदन में बदलता ही रहा मैं

कल्पनायें प्राण पाकर
दृगों को धोने लगीं
मिट गया सारा परायापन
हुईं खुशियाँ सगीं

चाहतों के शीर्षकों का लेख बनकर
शिलालेखों सा उभरता ही रहा मैं