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12:57, 2 सितम्बर 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सविता गौतम दाहाल
|अनुवादक=सुमन पोखरेल
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<poem>
जिंदगी से लिपटकर जिंदगी
एक उम्रदराज पेड़ सी हो गई है।
मैं इन बेलों को
ना तो काटकर फेंक सकती हूँ, न उखाड़कर।
क्या करूँ,
तन्हा पीपल न हो सकी,
तन्हा बरगद न हो सकी,
तपस्या या समाधि में खो न सकी,
बीहड़ का पेड़ सी हो गई है जिंदगी।
जिंदगी से लिपटकर जिंदगी
एक पुराना घर सी हो गई है।
इस घर को तोड़ सकती हूँ, न बगल से कुछ हटाना।
क्या करूँ,
खिड़की से नजर आने वाला देवदार का जंगल,
या गौरैया का सफर,
या हरे-भरे खेत नजर आने वाले,
क्षण भर की मुस्कान ला न सके होंठों पर।
पुराने शहर के पुराने घर सी हो गई है जिंदगी।
जड़ें जमाए हुए पेड़,
पुराने ढंग के घरों के नमूने,
अपनी-अपनी स्वार्थी कहानियाँ सुनाने में लगे हुए हैं।
क्या करूँ,
मैं न उम्रदराज पेड़ चाहती हूँ, न पुराना घर,
सिर्फ चाहती हूँ एक आजाद जिंदगी।
०००
</poem>