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चाहती हूँ एक आजाद जिंदगी / सविता गौतम दाहाल / सुमन पोखरेल

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जिंदगी से लिपटकर जिंदगी
एक उम्रदराज पेड़ सी हो गई है।
मैं इन बेलों को
ना तो काटकर फेंक सकती हूँ, न उखाड़कर।

क्या करूँ,
तन्हा पीपल न हो सकी,
तन्हा बरगद न हो सकी,
तपस्या या समाधि में खो न सकी,
बीहड़ का पेड़ सी हो गई है जिंदगी।

जिंदगी से लिपटकर जिंदगी
एक पुराना घर सी हो गई है।
इस घर को तोड़ सकती हूँ, न बगल से कुछ हटाना।

क्या करूँ,
खिड़की से नजर आने वाला देवदार का जंगल,
या गौरैया का सफर,
या हरे-भरे खेत नजर आने वाले,
क्षण भर की मुस्कान ला न सके होंठों पर।
पुराने शहर के पुराने घर सी हो गई है जिंदगी।

जड़ें जमाए हुए पेड़,
पुराने ढंग के घरों के नमूने,
अपनी-अपनी स्वार्थी कहानियाँ सुनाने में लगे हुए हैं।

क्या करूँ,
मैं न उम्रदराज पेड़ चाहती हूँ, न पुराना घर,
सिर्फ चाहती हूँ एक आजाद जिंदगी।
०००