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विरह व्यथा / विश्राम राठोड़

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<poem>
बड़े बड़े पर्वतों को
पिघलते हुए देखा है
पिघल जाते वह लम्हे
जो किसी ज़माने में
अडिग होते हुए देखा है
अम्बर-सी नहीं है
किसी में भी दिवानगी
समन्दर के लिए भी
आंसू बहाते हुए देखा है
</poem>
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