भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विरह व्यथा / विश्राम राठोड़
Kavita Kosh से
बड़े बड़े पर्वतों को
पिघलते हुए देखा है
पिघल जाते वह लम्हे
जो किसी ज़माने में
अडिग होते हुए देखा है
अम्बर-सी नहीं है
किसी में भी दिवानगी
समन्दर के लिए भी
आंसू बहाते हुए देखा है