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|रचनाकार=शेल सिल्वरस्टीन
|अनुवादक=यादवेन्द्र
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<poem>
कोई ज़माना ऐसा भी था
जब मैं बोल लेता था भाषा फूलों की
कोई ज़माना ऐसा भी था
जब मैं समझ लेता था
लकड़ी में दुबक कर बैठे कीट का
बोला एक-एक शब्द
कोई ज़माना ऐसा भी था
जब गौरयों की बतकही सुनकर
चुपकर मुस्करा लिया करता था मैं
और बिस्तर पर जहां तहां
बैठी मक्खी से भी
दिललगी कर लिया करता था

एक बार ऐसा भी याद है जब
मैंने झींगुरों के एक - एक सवाल के
गिन - गिनकर बकायदा जवाब दिए थे
जी - जान से शामिल भी हो गया था
उनके जीवन में ।

कोई ज़माना ऐसा भी था
जब मैं बोल लिया करता था
भाषा फूलों की ।

पर ये सब बदलाव
हो कैसे गया ?

ऐसे सब कुछ एकदम
लुप्त
कैसे हो गया ?
</poem>
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