भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भूली बिसरी भाषा / शेल सिल्वरस्टीन / यादवेन्द्र
Kavita Kosh से
कोई ज़माना ऐसा भी था
जब मैं बोल लेता था भाषा फूलों की
कोई ज़माना ऐसा भी था
जब मैं समझ लेता था
लकड़ी में दुबक कर बैठे कीट का
बोला एक-एक शब्द
कोई ज़माना ऐसा भी था
जब गौरयों की बतकही सुनकर
चुपकर मुस्करा लिया करता था मैं
और बिस्तर पर जहां तहां
बैठी मक्खी से भी
दिललगी कर लिया करता था
एक बार ऐसा भी याद है जब
मैंने झींगुरों के एक - एक सवाल के
गिन - गिनकर बकायदा जवाब दिए थे
जी - जान से शामिल भी हो गया था
उनके जीवन में ।
कोई ज़माना ऐसा भी था
जब मैं बोल लिया करता था
भाषा फूलों की ।
पर ये सब बदलाव
हो कैसे गया ?
ऐसे सब कुछ एकदम
लुप्त
कैसे हो गया ?