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कभी हाँ कुछ, मेरे भी शेर पैकर<ref>साचाँ</ref> में रहते हैं
वही जो रंग, तितली के सुनहरे पर में रहते हैं ।
हैं जितने भी ग़ज़ल वाले, इसी चक्कर में रहते हैं ।
जिधर देखो वहीं नफ़रत के आसेबाँ<ref>भूत</ref> आसेबों का साया है,
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब कहाँ किस घर में रहते हैं ।
वो जिस दम भर के उसने आह, मुझको थामना चाहा,
यक़ीं उस दम हुआ, के दिल भी कुछ पत्थर में रहते हैं ।
</poem>
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