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मुफ़लिसी चल पड़ी हाँफते हाँफते
चार पैसों की ख़ातिर वह बीमार माँ जा रही है कहीं खाँसते खाँसते
खा के दिन में भी सोयें, तो काटें कई
रात भी भूक से जागते जागते
सूद के बदले जबरन मवेशी ही वह खोलकर, ले गया हाँकते हाँकते
खाइयाँ नफ़रतों की बढ़ीं इस क़दर
मुद्दतें लग गयीं पाटते पाटते
फ़लसफ़ा ज़िंदगी का बयाँ कर गया
एक दर्ज़ी बटन टाँकते टाँकते
लफ़्ज़ "माँ" सुन के टीचर चली आई है छोड़कर कापियाँ जाँचते जाँचते दौलते इल्म से वक़्त कट जाएगा
रात-दिन मुफ़्त में बाँटते बाँटते
नाफ़ ही में जिसकी केसर हो आहू 'रक़ीब'इस की केसर छुपाथक गया है बहुत जिसे ढूँढते ढूँढते 
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