Last modified on 29 जनवरी 2025, at 01:41

सर्द रातों में भी काँपते काँपते / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'


सर्द रातों में भी काँपते काँपते
मुफ़लिसी चल पड़ी हाँफते हाँफते

चार पैसों की ख़ातिर वह बीमार माँ
जा रही है कहीं खाँसते खाँसते

खा के दिन में भी सोयें, तो काटें कई
रात भी भूक से जागते जागते

सूद के बदले जबरन मवेशी ही वह
खोलकर, ले गया हाँकते हाँकते

खाइयाँ नफ़रतों की बढ़ीं इस क़दर
मुद्दतें लग गयीं पाटते पाटते

फ़लसफ़ा ज़िंदगी का बयाँ कर गया
एक दर्ज़ी बटन टाँकते टाँकते

दौलते इल्म से वक़्त कट जाएगा
रात-दिन मुफ़्त में बाँटते बाँटते

नाफ़ ही में 'रक़ीब' इस की केसर छुपा
थक गया है जिसे ढूँढते ढूँढते